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तेली जाति का इतिहास, तेली शब्द की उत्पत्ति कैसे हुई?

 

तेली भारत, पाकिस्तान और नेपाल में पाई जाने वाली एक जाति या समुदाय है. इन्हें तेली, तेलीकर और तैल्याकर आदि के रूप में संदर्भित किया जाता है. खाद्य तेल निकालना और बेचना इनका पारंपरिक काम रहा है. हालांकि आधुनिक समय में यह अपने पारंपरिक काम को छोड़कर अन्य कृषि तथा नौकरी-व्यवसाय भी अपनाने लगे हैं. अधिकांश तेली हिंदू हैं, लेकिन यह मुस्लिम और पारसी भी हो सकते हैं. हिंदू तेली को राठौर, साहू, घांची, गुप्ता कहते हैं. मुस्लिम तेली को रोशनदार या तेली मलिक कहा जाता है. पारसी तेली को शनिवार तेली कहा जाता है. तेली को हिंदू समाज में वैश्य माना जाता है. आइये जानते हैं तेली जाति का इतिहास, तेली शब्द की उत्पत्ति कैसे हुई?

तेली किस  कैटेगरी में आते हैं?
तेली जाति को बिहार, छत्तीसगढ़, दिल्ली, गुजरात, हरियाणा, झारखंड, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और बंगाल आदि राज्यों में अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के रूप में वर्गीकृत किया गया है।

हिमाचल प्रदेश में इन्हें अनुसूचित जाति (SC) के रूप में सूचीबद्ध किया गया है.


Teli oil press (Russell, 1916) Image: Wikipedia
तेली जाति की जनसंख्या
अधिकांश तेली भारत में निवास करते हैं. यह बांग्लादेश ,नेपाल और पाकिस्तान में भी पाए जाते हैं, हालांकि इन सभी जगहों पर इनकी आबादी कम है. यह भारत के तकरीबन सभी राज्यों में अलग अलग नाम से पाए जाते हैं. भारत में मुख्य रूप से छत्तीसगढ़, बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, उड़ीसा, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, राजस्थान और हरियाणा में इनकी अच्छी खासी आबादी है. तेली समाज के नेता  छत्तीसगढ़, झारखंड और बिहार में तेली के आबादी को क्रमशः 20-22%, 12% और 7% होने का दावा करते हैं.

तेली किस धर्म को मानते हैं।
अधिकांश तेली हिंदू धर्म के अनुयायी हैं. कुछ तेली इस्लाम और पारसी धर्म को भी मानते हैं, हालांकि इनकी संख्या बहुत कम है. मुस्लिम तेली को रोशनदार या तेली मलिक कहा जाता है. महाराष्ट्र के कुछ स्थानों पर निवास करने वाले बेने इसराइल समुदाय (यहूदी) को शनिवार तेली कहा जाता है. तेल व्यापार से जुड़े होने के कारण इन्हें तेली समुदाय का उप समूह माना जाता है.

तेली जाति के सरनेम
उत्तर भारत में इनके प्रमुख सरनेम हैं: साहु, साहू,
साव, राठौर, गुप्ता, तैलिक,शाह, साहा, गुप्त, प्रसाद दक्षिण भारत में इन्हें घानीगार, चेटिटयार, चेट्टी, गंडला, गनियाशा नामों से जाना जाता है.

तेली जाति का इतिहास
अंग्रेजों के आगमन से पहले यह समाज आर्थिक दृष्टि से समृद्ध और प्रभावशाली रहा है. इस समाज के लोग बड़े जमींदार और साहूकार कारोबारी रहे हैं. जहां भी यह प्रभावशाली रहे इन्होंने मंदिरों और धर्मशालाओं का निर्माण कराया और रचनात्मक कार्यों में सक्रिय योगदान दिया है. स्वतंत्रता संग्राम में तेली समाज के लोगों का महत्वपूर्ण योगदान है. इस समाज में अनेक महापुरुषों ने जन्म लिया है. तेल का व्यापार करने वाले तेली वैश्य कहलाए. जिन्होंने सुगंधित तेलों का व्यापार किया वह मोढ बनिया कहलाए. राष्ट्रपिता महात्मा गांधी इसी समुदाय से आते हैं. भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी घांची क्षत्रिय मोढ तेली समाज से आते हैं.

तेली शब्द की उत्पत्ति कैसे हुई?
तेली शब्द की उत्पत्ति ‘तेल’ या “तैल” से संबंधित है. संस्कृत के शब्द तलीका या तैल का अर्थ होता है- तिलहन. तिलहन (तिल, सरसों आदि) को पेरकर तेल निकालने के पारंपरिक व्यवसाय के कारण इस समुदाय का नाम तेली पड़ा.

तेली जाति की उत्पत्ति कैसे हुई?
तेली जाति की उत्पत्ति के बारे में अनेक मान्यताएं हैं. जिसमें से प्रमुख मान्यताओं का विस्तार से नीचे वर्णन किया गया है.

भगवान शिव ने किया तेली जाति की उत्पत्ति
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, एक बार भगवान शिव की अनुपस्थिति में माता पार्वती को घबराहट महसूस हुई क्योंकि उनके महल में कोई द्वारपाल नहीं था. इसीलिए उन्होंने अपने शरीर के मैल-पसीने से भगवान गणेश को उत्पन्न किया और उन्हें दक्षिणी द्वार की रक्षा के लिए तैनात कर दिया. जब भगवान शिव वापस लौटे तो गणेश जी उन्हें नहीं पहचान पाए और महल में प्रवेश करने से रोक दिया. इससे भगवान शिव इतना क्रोधित हुए कि उन्होंने अपनी तलवार से गणेश जी का सिर काट दिया और मस्तक को भस्म कर दिया. जब भगवान शिव ने महल में प्रवेश किया तो माता पार्वती ने तलवार पर रक्त लगा देखकर उनसे पूछा कि क्या हुआ. पुत्र की हत्या की बात जानकर माता दुखी हो गई और विलाप करने लगी. माता पार्वती ने भगवान शिव से गणेश जी को फिर से जीवित करने का आग्रह किया. लेकिन मस्तक भस्म कर देने के कारण उन्होंने गणेश जी को फिर से जीवित करने में असमर्थता जताई. लेकिन उन्होंने कहा यदि कोई जानवर दक्षिण की ओर मुंह किया हुआ मिले तो गणेश जी को फिर से जीवित किया जा सकता है. फिर ऐसा हुआ कि एक व्यापारी महल के बाहर आराम कर रहा था. उसके पास एक हाथी था जो दक्षिण की ओर मुंह करके बैठा था. भगवान शिव ने अपने तलवार के प्रहार से उसका सर काट दिया और हाथी के सिर को गणेश जी के धड़ से जोड़कर उन्हें पुनर्जीवित कर दिया. लेकिन हाथी की मौत से हुए नुकसान के कारण व्यापारी जोर-जोर से विलाप करने लगा. व्यापारी को शांत करने के लिए भगवान शिव ने ओखली और मुसल की मदद से, जो तब तक अज्ञात यंत्र था, कोल्लू बनाया और तिलहन को पेरकर तेल निकालने की विधि
बतलाई. व्यापारी कोल्लू के मदद से तेल पेरने लगा और तेली जाति का संस्थापक यानी की पहला तेली कहलाया.

तेली की उत्पत्ति अंग्रेज इतिहासकार क्रूक के अनुसार
अंग्रेजी इतिहासकार क्रूक ने मिर्जापुर में प्रचलित कथा का उल्लेख किया है. एक व्यक्ति था, उसके तीन बेटे थे और उसके पास 52 महुआ के पेड़ थे. जब वह बूढ़ा और कमजोर हो गया तो उसने अपने बेटों से महुआ के पेड़ों का बंटवारा कर लेने को कहा. लेकिन आपस में चर्चा करने के बाद बेटों ने महुआ के वृक्षों को नहीं बल्कि उसकी उपज को बांटने का फैसला किया. जिसे पत्ती मिला वह पत्तियों से भट्टी जला कर अनाज भुनने का काम करने लगा और भारभुजा कहलाया.‌ जिसके हिस्से में फूल मिला वह फूलों का रस निकाल कर शराब बनाने लगा और कलार कहलाया. तीसरे के हिस्से में गुठली और फल आया, जिसे पेरकर वह तेल निकालने लगा और वही तेली जाति का संस्थापक था.

क्षत्रिय तेली
मंडला के राठौर तेली राठौर राजपूत होने का दावा करते हैं. उनका कहना है कि मुसलमान आक्रमणकारियों से पराजित होने के बाद उन्हें तलवार और जनेऊ त्याग कर तेल व्यवसाय को अपनाना पड़ा. निमाड़ के तेली, जिनमें से कई धनी व्यापारी भी हैं, बताते हैं कि उनके पूर्वज गुजरात के मोढ बनिया थे. उन्हें मुस्लिम शासन के दौरान आजीविका के लिए तेल पेरना पड़ा. 1911 में तेली समुदाय ने राठौर उपनाम अपनाया, और खुद को राठौर तेली कहने लगे. 1931 में उन्होंने खुद को राठौर वैश्य होने का दावा किया. फर्रुखाबाद के आर्यसमाजी सत्य भरत शर्मा द्विवेदी ने तेली जाति को वैश्य वर्ण साबित करने के लिए “तेलीवर्ण प्रकाश” नामक पत्रिका प्रकाशित किया

दक्षिण भारत के समृद्ध तेली
तेली समाज के लोग आरंभिक मध्य काल में दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों में मंदिरों को आपूर्ति करने के लिए तेल का उत्पादन किया करते थे. दक्षिण भारत के विभिन्न भागों में मंदिर नगरों के उदय और सांस्कृतिक गतिविधियों के लिए आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति से जुड़े होने के कारण कुछ समुदायों की सामाजिक स्थिति में सुधार हुआ और वह सामाजिक सीढ़ी में ऊपर जाने लगे. माली और तेली समुदायों का काम शहरों के लिए महत्वपूर्ण हो गया और वह इतने समृद्ध हो गए कि मंदिरों को दान देने लगे जिससे उनकी सामाजिक स्थिति और मजबूत हो गई.

तेली का मंदिर
ग्वालियर दुर्ग परिसर में स्थित एक प्राचीन मंदिर है. इस मंदिर का निर्माण आठवीं और नौवीं सदी में किया गया था. स्थानीय लोक कथाओं के अनुसार, भगवान विष्णु, शिव और अन्य देवताओं को समर्पित इस मंदिर का निर्माण राजाओं और पुरोहित वर्ग के बजाय तेल व्यापारी जाति द्वारा कराया गया था.